कहते हैं कि स्वार्थ को त्यागने वाले लोग जीवन में कई ऊंचाइयों पर पहुंचते हैं। इसके बावजूद, त्याग कर दूसरों का भला करना आसान नहीं है। पर मदर टेरेसा ने ऐसा किया है। हमारे समाज में मदर टेरेसा का नाम अक्सर मानव सेवा से जोड़ा जाता है। Маदर टेरेसा ने अपना पूरा जीवन दूसरों की सेवा करने में बिताया। वह बिना स्वार्थ के दूसरों की सहायता करने को तैयार रहती थी। उन्होंने हर किसी को प्रेम किया, जो गरीब, लाचार, बीमार या अकेला था। यह हैरान करने वाला है कि मदर टेरेसा भारत की नहीं थी, लेकिन वह यहां पहली बार आई तो स्थानीय लोगों से प्रेम करने लगी। इसके बाद उन्होंने यहीं रहने का फैसला किया। 26 अगस्त को आज उनका जन्मदिन है। हम आज आपको उनके जीवन से कुछ बताने वाले हैं।
यह मदर टेरेसा का जन्मस्थान था
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दरअसल, मदर टेरेसा का जन्म 1910 में स्कॉप्जे में हुआ था, जो आज नॉर्थ मैसिडोनिया में है। मदर टेरेसा का असली नाम था एग्नेस गोंझा बोयाजिजू। वह एक ऐसी महिला थीं जो हर किसी को प्यार और करुणा से भरती थी। मदर टेरेसा के पिता का निधन हो गया जब वे महज आठ साल की थीं। इस दौरान उनके परिवार को बहुत कम पैसा था। 12 वर्ष की उम्र में वह नन बनने के लिए चर्च में गई थी। मदर टेरेसा ने बहुत से देशों का दौरा किया था। 1929 में वह भारत आईं। यहीं उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा में बिताया। 1948 में मदर टेरेसा को भारत की नागरिकता मिली।

गरीबों के लिए मिशनरी सेवा शुरू की
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1948 में, मादर टेरेसा ने गरीबों के लिए मिशनरी सेवा शुरू की। वह दो साधारण कपास की साड़ियों में नीली पट्टी पहनती थीं। वह गरीबों की झोपड़ी में बस गईं और वहीं रहने लगीं। जब उन्हें कोई मदद नहीं मिली, तो उन्होंने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए भीख मांगी। लेकिन मदर टेरेसा की दृढ़ इच्छाशक्ति कहां झुकने वाली थी? यह बताया जाना चाहिए कि मदर टेरेसा ने कुष्ठ रोगियों के लिए बहुत कुछ किया है।
मदर टेरेसा का आदर
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पूरी दुनिया मदर टेरेसा के गरीबों के लिए किए गए प्रयास को सलाम करती है। उनके कामों के लिए उन्हें कई बार सम्मान भी मिला है। और मदर टेरेसा ने बिना स्वार्थ के लोगों की मदद क्यों की? 1950 में, मदर टेरेसा को वेटिकन से मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्वीकृति मिली। यह धार्मिक संस्थाओं का समूह बहुत गरीब लोगों की निस्वार्थ सेवा कर रहा था। धीरे-धीरे उनका काम हर जगह हो गया। 17 अक्टूबर 1979 को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। 1980 में, उन्हें मानव सेवा में उनके अद्भुत योगदान के लिए देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” भी मिला।